खगौल, पटना, बिहार। आठवाँ क्लास.. ए. बी. निकेतन स्कूल... अंग्रेजी
माध्यम.. सि. बी. एस. ई. बोर्ड।
पता चला कि 'बिहार बोर्ड' में आठवाँ में ही
बोर्ड का परीक्षा होने वाला है इस बार से । हमेशा सूनते आये थे दोस्त
लोगों से - 'बिहार बोर्ड में पड़ने वाला सि. बी. एस. ई. बोर्ड वाला को पढ़ा
देता है।' सच का पता नहीं.. जो सुने सो माने। कुछ हद तक तो सच्चाई भी था।
कम से कम गणित में तो बिलकुल ही, जो की अपना सबसे प्रिये विषय था। तय हुआ
कि आगे पढ़ाई बिहार बोर्ड से ही करना है। बिहार बोर्ड में आठवाँ बोर्ड के
लिए पंजीकरण जरी है। बस यही समय है बोर्ड बदल लेने का, चूक गए तो सि. बी.
एस. ई. में रह जाओगे । कहीं किसी सरकारी स्कूल से फॉर्म भरना होगा। दोनों
बोर्ड का सिलेबस अलग-अलग है। कुछ महीनों में एग्जाम होगा। पूरा साल भर का
सिलेबस का तैयारी करना होगा। अब जो भी हो, करना है तो करना है। एडमिशन का
इंतजाम हो जाये बस। दोस्त लोगों से पता करना चालू किए। कोई जुगाड़ लगे
सरकारी स्कूल में एडमिशन का। बोर्ड परीक्षा का पंजीकरण चालू है, पता नहीं
एडमिशन लेगा भी कि नहीं। एक दोस्त बोला कि 'बालिका स्कूल' में एडमिशन का
इन्तजाम हो सकता है। कहे - 'पागल हो गया है का रे ? बालिका स्कूल में तो
लड़कीसब का एडमिशन होता है, मेरा कैसे होगा ?' बोला कि 'नहीं, स्कूल तो लड़का
सब का ही है। बाजार में है स्टेशन रोड पर, चलना कल मेरे साथ एडमिशन का बात
कर लेंगे। वहाँ एक टीचर से जान-पहचान भी है, काम हो जायेगा।' सोंचे कि चलो
कह रहा है तो देख ही लेते हैं।
अगले दिन बालिका स्कूल पहुँचे। पहुँचने पर पता चला कि स्कूल
का नाम है - "बालिगा उच्चविद्यालय"। 'बालिगा' नाम के कोई व्यक्ति (बहुत
नहीं जानते हैं उनके बारे में इसीलिए महापुरुष नहीं कह रहे हैं, क्यूंकि आज
तो राजीव गाँधी और इन्दिरी गाँधी के नाम पर विश्वविद्यालय तक बन चूका है)
हुए थे कभी। उनके नाम पर स्कूल का नाम रखा गया। खैर, प्रधानाध्यापक से
मिलना हुआ। भले आदमी थे, आसानी से 'हाँ' कह दिए। बोले कि एडमिशन सेक्शन में
जा कर बोलो कि सर बोले हैं एडमिशन लेने के लिए। वहाँ पहुँचे तो टी. सी.
माँगा। बोला कि बिना टी. सी. के एडमिशन नहीं होगा। सोंचे कि ए. बी. निकेतन
से टी. सी. ले आते हैं। पता चला कि सरकारी स्कूल का ही टी. सी. देना होगा,
प्राइवेट स्कूल का टी. सी. मान्य नहीं है। लगा कि ऐसा स्कूल ही क्यूँ
बनाता है सब जिसका टी. सी. तक मान्य नहीं है। दोस्त था उसके जान-पहचान वाले
सर के पास पहुँचे। वो बोले कि ५० रुपया में टी. सी. मिल जायेगा, एक स्कूल
है उनके तरफ वहाँ से बनवा के कल ले आयेंगे। ख़ुशी हुआ, अब तो एडमिशन पक्का
है। अगला दिन एडमिशन भी हो गया। जब एडमिशन ले लिए तो 'सिंसियर स्टूडेंट' के
जैसा क्लास भी जाने का सोंचे। अगला दिन सुबह में स्कूल आये। प्रार्थना में
लाइन लगे, स्कूल के मैदान में। "तू ही राम है, तो रहीम है, तू करीम,
कृष्ण,खुदा हुआ.…" मन प्रसन्न हो गया। क्या आनंद आया पार्थना में ! लगा कि
यही स्कूल है…यहीं पढना चाहिए था शुरु से। वो कैसा स्कूल था, अंग्रीजी में
मिमियाता था सब प्रेयर के नाम पर, छत पर लाइन लगा के... कोई फिलिंग नहीं।
पता नहीं क्या-क्या बोलता था, किसी को समझ में आ जाये तो बड़ी बात है। टाई
के बिना प्रेयर में जाने नहीं दिया जाता था। अपने को ई 'कंठ लंगोट' कभी
जँचा नहीं। लेकिन करते क्या ? स्कूल का नियम था - गला में पगहा और पैर में
काला जुत्ता। मानना पड़ता था। आज लगा कि जैसे हम आजाद हो गए, अंग्रेजों से।
प्रार्थना के जैसा प्रार्थना; आधे लोगों पर पेड़ का छाँव पड़ रहा है, आधे
धूप में, लेकिन लगा कि सब दिल से गा रहे हैं, भावना के साथ, कोई जल्दी
नहीं।
प्रार्थन खत्म हुआ। क्लासरूम में गए। सोंचें कि कोई पढ़ाने
आएगा। घंटा गुजर गया। एक-दो मास्टर साहब इधर उधर घूमते नजर आये। क्लास के
बगल से गुजर गए, शायद कुछ और काम रहा होगा उनको ! सामने वाले क्लास में
पढ़ाई हो रहा था। आखिर हमारे क्लास में क्यूँ नहीं ? एक लड़का से पूछे - यार,
क्लास होता है कि ऐसे ही चलता है ? बोल कि हाँ, कभी कभी हो भी जाता है।
बात होने लगा आस पास बठे लोगों से। पता लगा उन लोगों को कि हम एक प्राइवेट
स्कूल में पढ़ते थे। सारा क्लास होता था। यदि कोई टीचर नहीं आये तो उनके जगह
कोई और पढ़ाने आता था। पूरा 'डिसिप्लिन' !… बच्चा को हल्ला करने का मौका
नहीं, और टीचर को आराम करने का मौका नहीं। एक सब्जेक्ट का तीन-तीन नोटबुक।
डायरी रोज लाना अनिवार्य। कभी-कभी तो डायरी चेक भी हो जाता था, सही से
लिखा जा रहा है कि नहीं।
हमको भी पता चला कुछ इस स्कूल के बारे में। एक लड़का बताया
कि एक बार एक सर एक लड़का को क्लास में खड़ा किये। कुछ सवाल पूछे, बेचारा
नहीं बता सका, तो सर गुस्सा में बोले कि पढ़ते क्यूँ नहीं हो, करते क्या हो
घर पर ? बच्चा जवाब दिया - 'सर, कुट्टी काटते हैं'। बात सही भी था, बेचारा
मजाक नहीं कर रहा था। इसी तरह एक बार अंग्रजी के मास्टर साहब एक लड़का को
क्लास में खड़ा किए। सोंचे होंगे पढ़ाने से पहले देख लिया जाये कि इनको पहले
से कहाँ तक पता है। पूछे - " 'नाउन' किसे कहते हैं ?" लड़का खूब सोंचा, शायद
कभी ऐसा कुछ सुने हों। बहुत जोर देने पर उसको कुछ याद आया। बताया - "सर,
नउआ के मेहरारू को नाउन कहते हैं"। अद्भुत जवाब !
अब तो इस स्कूल से मेरा अच्छा परिचय हो चूका था। फॉर्म भरने का तारीख पता किए और घर आये।
अब तो इस स्कूल से मेरा अच्छा परिचय हो चूका था। फॉर्म भरने का तारीख पता किए और घर आये।
घर में ही पढ़ाई करना शुरू किए। परीक्षा का डेट आ चूका था और
बाजार में 'एटम बम' बिकने लगा था (ह्न, घबराईये नहीं, ऐसा नहीं है कि
बिहार में परमाणु बम बाजार में बिकने लगा है ! 'एटम बम' नाम से गेस पेपर
छपता है, बोर्ड एग्जाम के लिए)। हाथ में एटम बम ले के बैठ जाते छत पर
कुर्सी लगा के। एग्जाम हुआ, रेलवे स्कूल में सेण्टर पड़ा। उम्मीद था कि
अच्छा नंबर आएगा। उम्मीद से कुछ ज्यादा ही अच्छा नंबर आया। अंकपत्र देख
करके पुलकित हुए.. यज्ञ सफल हुआ। फिर नौवा क्लास में कहीं न कहीं तो एडमिशन
लेना ही था ,बिहार बोर्ड के स्कूल में जिसमें पढाई होता हो। रेलवे स्कूल
था पास में, लेकिन पारिवारिक सलाहकारों के मद्देनजर 'मून अकादमी' में
एडमिशन लेना पड़ा, फिर प्राइवेट स्कूल...यहाँ भी 'नेकटाई' का प्रचलन था
लेकिन उतना ज्यादा गला नहीं दबता था जितना ए. बी. निकेतन में। दसवाँ तक यहाँ पढ़ना हुआ... दूसरी बार फिर बोर्ड परीक्षा, दसवाँ में !
- रवि
"सर, नउआ के मेहरारू को नाउन कहते हैं"। ----
ReplyDeleteपढ़ के पुरानी यादें ताजा हो गई।