Sunday, April 15, 2012
विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय एक अनिवार्य आवश्यकता
विज्ञान और अध्यात्म के योग की जितनी आवश्यकता आज है उतनी शायद पहले कभी नहीं थी | आज समाज में दो तरह के लोगों का बाहुल्य है - एक तो वो लोग हैं जो भौतिकवादी विज्ञान को ही सब कुछ मानते हैं, भौतिकवादिता के पीछे आँख मूंद कर दौड़े जा रहे हैं, अध्यात्म उनको निरर्थक प्रतीक होता है; और दूसरी तरफ वो लोग हैं जो रूढ़ीवादी मानसिकता से ग्रसित हैं, बिना सोंचे विचारे अंधी परम्परों के पीछे पड़े हैं | दोनों में से कोई भी स्थिति सही नहीं है | पहला वर्ग अध्यात्म के बिना लंगड़ा है तो दूसरा विज्ञानवाद के बिना अंधा | भौतिकता आवश्यक है, तो अध्यात्म भी अनिवार्य है | क्या कोई ऐसा इन्सान संभव है जो कह सके कि हम सिर्फ भौतिकता से ही जी लेंगे ?? आज तक कोई ऐसा नहीं हुआ जिसे भावना, प्रेम, मित्रता, स्नेह आदि की जरूरत न पड़ी हो | ये अध्यात्म के विषय हैं | इनके बिना मानव जीवन संभव नहीं | गलती तब हो जाती है जब लोग अध्यात्म को सिर्फ पूजा-पाठ मात्र समझ लेते हैं | मंदिर गए, १२ रूपये की प्रसाद चढ़ा दी और आशा करते हैं भगवान् मेरा अमुक काम कर दे, केस जीता दे या परीक्षा में पास करा दे इत्यादि इत्यादि | भगवान् यदि झूठा केस जिताने लगे और बिना पढ़े पास कराने लगे तो उन्हें भगवान कहना ही उचित नहीं होगा | हाँ, मंदिर और पूजा-अर्चना का अपना महत्त्व है, वो एक अलग विषय है | यहाँ कहना ये है कि बहुत सारी परमपराएं बिना जाने समझे ही अपना ली जाती हैं, जो गलत है | आधारहीन परम्पराएँ समाप्त होनी ही चाहियें | लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आज जितने प्रचालन हैं सब निरर्थक हैं, जैसा भौतिकवादी लोग मान बैठे हैं | ध्यान, साधना, जप, तप का अपना विज्ञान है | इसका भी लाभ आदमी उसी तरह उठा सकता है जैसे मोबाइल फ़ोन और कंप्यूटर का | हाँ, अब इस्तेमाल करना नहीं आये तो निश्चित रूप से सब निरर्थक ही मालूम पड़ेगा | अगरबती दिखा देने से न तो कंप्यूटर से ही कुछ मिलने वाला है न देवी-देवता के तस्वीर से | कंप्यूटर का लाभ लेने के लिए उसे चलाना सीखना पड़ता है | उसी तरह प्रतिमा / प्रतीक-चित्रों से लाभ लेने का तरीका सिखाना आवश्यक है | हाल ही में एक मित्र से सुना - " मैं धार्मिक मान्यताओं में विश्वास नहीं करता | वैसे मेरे पास भी गणेश जी का एक चित्र है, लेकिन इसीलिए रखे हुए हैं क्यूंकि मम्मी दे दी थी कि रख लेना |" काश ऐसा हुआ होता कि मम्मी तस्वीर देने के साथ यह भी बताती कि इसका मतलब क्या है ? इससे लाभ कैसे उठाया जा सकता है ? शायद उन्होंने यह मान लिया होगा कि बेटा इतना पढ़ा-लिखा है, समझदार है, कुछ तो अकाल लगाएगा, कुछ तो समझने का प्रयास करेगा कि क्यूँ गणेश जी की तस्वीर दी रही है | बेटा को यदि समय मिला होता दो क्षण सोंचने का तो शायद समझ सका होता कि गणेश का तात्पर्य ज्ञान से है | माँ ने कहा है- 'बेटा, ज्ञान अर्जित करना और उसका वैसा उपयोग करना जिससे देवत्व उभरे | भगवन गणेश अपने ज्ञान के कारण प्रथम पूजा के अधिकारी बने | तुम भी ज्ञान का महत्त्व समझना, बुद्धि का विकास करना और सही रास्ते पर लगाना जिससे तुम्हें कृति प्राप्त हो | यह चित्र एक पोस्ट-इट-नोट की तरह से है जो सदा तुम्हें इन बातों का स्मरण करता रहेगा |' यदि बेटे को ये बात समझ में आ जाती तो शायद माँ का दिया वो चित्र सार्थक हो जाता | गणेश भगवान के विषय में सुना वर्षों पहले की एक बात याद आती है | उस समय मैं पटना में था और प्रज्ञा युवा मंडल के साप्ताहिक कार्यक्रम में डॉ. अजक कुमार आये थे, जो इंडियन मेडिकल एसोसियेसन के चीफ थे और करीब २० साल अमेरिका में कार्य कर चुके थे | उन्होंने कहा था - "मैं हमेशा अपने पास एक गणेश जी की तस्वीर रखता हूँ | इससे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है | जैसे- गणेश जी नाक बहुत बड़ा है, यह हमें सिखाता है कि अपना सेंसिंग-कैपेबिलीटी बढ़ा के रखो | आस-पास क्या चल रहा है उसका ध्यान रखो | मैं हमेशा अपने विषयों के लिए चौकन्ना रहता हूँ |" उन्होंने एक उदहारण के तौर बताया - "एक बार मैं एक मीटिंग में गया था | वहाँ एक वक्ता मुझे एक नए खोज के बारे में बताने लगे | उनके शुरू करते ही मैंने उन्हें आगे की बात बता दी, तो उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया - अरे, आपको पहले से पता है ! मैंने जवाब दिया कि यह कल ही प्रकाशित हो चूका है और मैं पढ़ चूका हूँ |" यह सीख गणेश जी के लम्बे नाक का है | इसी तरह उन्होंने उनके गणेश जी के बड़े उदार, बड़े कान इत्यादि की व्याख्या की | यदि हम भी सोंचने का प्रयास करें कि इन प्रतीकों से क्या शिक्षाएँ मिलती हैं तो शायद इनसे जुड़े अध्यात्म का कुछ मतलब समझ में आये | ....विज्ञान और अध्यात्म के समन्वित स्वरूप में ही मानवहित है |.....
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